सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/१४४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२३
धनंजय-विजय
ताही सों तोहि नहिं बध्यो, न तरु अबै कुरु-ईस।
जा सर सों तोर्यो मुकुट तासों हरतो सीस॥

प्रति०-देव अपने पुत्र का वचन सुना?

इंद्र-(विस्मय से)

दैव भए अनुकूल तें सब ही करत सहाय।
भीम-प्रतिज्ञा सों बच्यो अनायास कुरुराय॥

विद्या०—देव ! दुर्योधन के मुकुट गिरने से सब कौरवों ने क्रोधित होकर अर्जुन को चारों ओर से घेर लिया है।

इंद्र-तो अब क्या होगा?

विद्या०—देव अब आपके पुत्र ने प्रस्थापनास्त्र चलाया है।

नाक बोलावत, धनु किए तकिया, मूँँदे नैन।
सब अचेत सोए, भई मुरदा सी कुरु-सैन॥

इंद्र-युद्ध से थके वीरों को सोना योग्य ही है। हाँ फिर-

विद्या-

एक पितामह छोड़ि के सबको नॉगो कीन।

बॉधि अँधेरी आँख मैं, मूँड़ि तिलक सिर दीन॥
अब जागे भागे लखौ रह्यो न कोऊ खेत।
गोधन लै तुव सुत अबै ग्वालन देखौ देत॥
शत्रु जीति निज मित्र को काज साधि सानंद।

पुरजन सों पूजित लखौ पुर प्रविसत तुव नंद॥

इंद्र-जो देखना था वह देखा।

(रथ पर बैठे अर्जुन और कुमार आते हैं)

अ०-(कुमार से) कुमार!