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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/१५७

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भारतेंदु-नाटकावली

की इच्छा इधर प्रवृत्त तो हुई। परंतु हा! शोच की बात है कि जो बड़े-बड़े लोग हैं और जिनके किए कुछ हो सकता है वे ऐसी अंध-परंपरा में फँसे हैं और ऐसे बेपरवाह और अभिमानी हैं कि सच्चे गुणियों की कहीं पूछ ही नहीं है। केवल उन्हीं की चाह और उन्हीं की बात है जिन्हें झूठी खैरखाही दिखाना वा लंबा-चौड़ा गाल बजाना आता है। ( कुछ सोचकर ) क्या हुआ, ढँग पर चला जायगा तो यो भी बहुत कुछ हो रहेगा। काल बड़ा बली है, धीरे-धीरे सब आप ही कर देगा। पर भला आज इन लोगो को लीला कौनसी दिखाऊँ। ( सोचकर ) अच्छा, उनसे भी तो पूछ लें? ऐसे कौतुकों में पुरुषो की अपेक्षा स्त्रियों की बुद्धि विशेष लड़ती है। ( नेपथ्य की ओर देखकर ) मोहना! अपनी भाभी को जरा इधर तो भेजना।

( नेपथ्य में से, 'मैं तो आप ही आती थी' कहती हुई नटी * आती है )

नटी---मैं तो आप हो आती थी। वह एक मनिहारिन आ गई थी, उसी के बखेड़े में लग गई, नहीं तो अब तक कभी की आ चुकी होती। कहिए, आज जो लीला करनी हो


  • महाराष्ट्री वेष, कमर पर पेटी कसे वा मर्दाना कंपड़ा पहिने पर

जेवर सब जनाने।