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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/१७

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खड़ी बोली की ओर झुके नहीं थे, इसी से नाटकों की रचना नहीं हो सकी।

सं॰ १६८० वि॰ में संस्कृत हनुमन्नाटक का भाषानुवाद कृष्णदास के पुत्र हृदयराम ने समाप्त किया था। हिंदी में नाटक शब्द-संयुक्त यही पुस्तक सबसे प्राचीन ज्ञात होती है। इसके अनंतर सुकवि नेवाज कृत शकुंतला नाटक मिलता है, जो फर्रुखसियर के समय में सं॰ १७८० वि॰ के लगभग तैयार हुआ था। इसके अनंतर सुप्रसिद्ध कवि देवकृत देवमाया प्रपंच नाटक बना। सं॰ १८१६ में ब्रजवासीदास ने प्रबोध चंद्रोदय-नाटक का भाषानुवाद किया। ये सब केवल इसीलिए नाटक कहे जाते हैं कि इनके नाम के साथ नाटक शब्द जुड़ा हुआ है। वास्तव में ये काव्य ही है। वेदांत विषयक भाषा ग्रंथ समयसार नामक एक इसी कोटि के नाटक का भारतेन्दु जी ने उल्लेख किया है। रीवाँ-नरेश महाराज विश्वनाथसिंह कृत आनंद रघुनंदन नाटक, काशिराज की आज्ञा से निर्मित प्रभावती नाटक तथा उसी राजवंश के आश्रित गणेश कवि कृत प्रद्युम्न-विजय नाटक यद्यपि नाटक रीति से बने हैं, पर ये भी छंदमय ग्रंथ हैं। भारतेन्दु जी के पिता महाकवि गिरधरदास जी कृत नहुष नाटक का जो प्रथमांक प्राप्त है; उसको देखने से ज्ञात होता है कि यह नाटक की सम्यक् रीति से बना है तथा गद्य-पद्य मिश्रित है। संस्कृत नाटकों की प्रथा पर इसमें भी कविता की प्रचुरता है और यह ब्रजभाषा ही में लिखा हुआ है। इस कारण यह खड़ी बोली हिंदी का प्रथम नाटक नहीं कहला सकता। इसके आगे ब्रजभाषा में नाटक नहीं लिखे गए और खड़ी बोली ही को इसके लिए उपयुक्त समझा गया। हाँ, नाटकों

भा० ना० भू०––२