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में जो कविता दी जाती थी, उसके लिए ब्रजभाषा का प्रयोग कुछ दिनों तक होता रहा था।
राजा लक्ष्मणसिंह का शकुंतला का गद्यानुवाद सन् १८६३ ई॰ में पहिली बार छपा, जिसके प्रायः पच्चीस वर्ष बाद उसका गद्य-पद्य-मय संशोधित संस्करण प्रकाशित हुआ था। यह अनुवाद बहुत ही सुंदर बन पड़ा है। इसके अनंतर भारतेन्दु जी के नाटकों ही से खड़ी बोली हिंदी में नाटक-रचना का आरंभ होता है। इन्होने मौलिक नाटकों के सिवा कई नाटकों का अनुवाद भी किया था और कुछ दूसरे नाटकों के आधार पर लिखे थे। चंद्रावली, अंधेरनगरी, प्रेमयोगिनी (अधूरा), विषस्य विषमौधम्, वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, भारतदुर्दशा, नीलदेवी और सती प्रताप (अपूर्ण) इनके मौलिक नाटक हैं। विद्यासुंदर तथा सत्यहरिश्चन्द्र अनुवाद नहीं है पर वे अन्य नाटकों के आधार पर लिखे गए हैं। मुद्राराक्षस, कर्पूरमंजरी, धनंजय विजय तथा पाखंड विडंबन संस्कृत से अनूदित हुए हैं और दुर्लभबंधु अंग्रेजी से। ये सभी नाटक भाषा, भाव, नाट्यकला आदि सभी दृष्टि से अच्छे बन पड़े हैं। इनमें कई सफलतापूर्वक खेले भी जा चुके हैं। भारत-जननी इनका एक अनूदित नाटक है। इनके नाटकों के विषय में अलग विस्तार से लिखा गया है।
भारतेन्दुजी की इस नाटक-रचना में उनके कई मित्रों तथा समकालीन सज्जनों ने सहयोग किया है। लाला श्री निवासदास ने प्रह्लाद, रणधीर-प्रेममोहिनी, संयोगता स्वयंवर तथा तप्ता संवरण, पं॰ बद्री नारायण चौधरी 'प्रेमधन' ने भारत सौभाग्य, वारांगना रहस्य, प्रयाग रामागमन तथा वृद्ध विलाप; पं॰