पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/१७७

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सत्यहरिश्चंद्र

सखी---आप कहती हैं चले? वह देखिए आ पहुँचे, कि चले?

( रानी घबड़ाकर आदर के हेतु उठती है )

( *परिकर-सहित महाराज हरिश्चन्द्र आते हैं। रानी प्रणाम करती है और सब लोग यथास्थान बैठते हैं )

हरि०---( रानी मे प्रीतिपूर्वक ) प्रिये! आज तुम्हारा मुखचंद्र मलिन क्यों हो रहा है?

रानी---पिछली रात मैंने कुछ दुःस्वप्न ऐसे देखे हैं जिनसे चित्त व्याकुल हो रहा है।

हरि०---प्रिये! यद्यपि स्त्रियो का स्वभाव सहज ही भीरु होता है, पर तुम तो धीर-कन्या, वीर-पत्नी और वीर माता हो, तुम्हारा स्वभाव ऐसा क्यो?

रानी---नाथ! मोह से धीरज जाता रहता है।

हरि०---तो गुरुजी से कुछ शांति करने को नहीं कहलाया!

रानी---महाराज! शांति तो गुरुजी ने कर दी है।


  • राजा के परिकर में प्रथम मत्री नीमा, पैजामा, कमरबंद, दुशाला, पगडी, सिरपेच सजे। दो मुसाहिब साधारण सभ्यों के वेष में। एक निशानवाला सेवक के भेष में। निशान पर सूर्य के नीचे "सत्ये नास्ति भयं क्वचित्" लिखा हुआ। चार शस्त्रधारी अंगरक्षक, दो सेवक।

सफेद वा केसरी जामा, पैजामा, कमरबंद, मर्दाना सब गहना, सिर पर किरीट वा पगड़ी, सिरपंच, तुर्रा, हाथ मे तलवार, दुशाला या कोई चमकता रूमाल ओढ़े।