सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/१७९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६१
सत्यहरिश्चंद्र

हरि०---प्रिये! हरिश्चंद्र की अर्द्धांगिनी गिनी होकर तुम्हे ऐसा कहना उचित नहीं है। हा! भला तुम ऐसी बात मुँह से निकालती हो! स्वप्न किसने देखा है? मैंने न। फिर क्या? स्वप्नसंसार अपने काल में असत्य है, इसका कौन प्रमाण है? और जो अब असत्य कहो, तो मरने के पीछे तो यह संसार भी असत्य है, फिर उसमें परलोक के हेतु लोग धर्माचरण क्यो करते हैं? दिया सो दिया, क्या स्वप्न में, क्या प्रत्यक्ष?

रानी---( हाथ जोड़कर ) नाथ! क्षमा कीजिए, स्त्री की बुद्धि ही कितनी!

हरि---( चिंता करके ) पर मैं अब करूँ क्या! अच्छा! प्रधान! नगर में डौंड़ी पिटवा दो कि राज्य को सब लोग आज से अज्ञातनाम-गोत्र ब्राह्मण का समझे, उसके अभाव में हरिश्चंद्र उसके सेवक की भॉति उसकी थाती समझके राजकार्य करेगा और दो मुहर राजकाज के हेतु बनवा लो, एक पर "अज्ञातनाम-गोत्र ब्राह्मण महाराज का सेवक हरिश्चंद्र" और दूसरे पर "राजाधिराज अज्ञात-नाम-गोत्र ब्राह्मण महाराज" खुदा रहे और आज से राज-काज के सब पत्रों पर भी यही नाम रहे। देश के राजाओ और बड़े-बड़े कार्याधीशों को भी आज्ञापत्र भेज दो कि महाराज हरिश्चंद्र ने स्वप्न में अज्ञातनाम-गोत्र