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भारतेंदु-नाटकावली

प्राण बचेगे, सो यहाँ और भी उत्पात हो रहा है। जहाँ देखो वहाँ स्नान, पूजा, जप, पाठ, दान, धर्म होम, इत्यादि में लोग ऐसे लगे रहते हैं कि हमारी मानो जड़ ही खोद डालेंगे। रात-दिन शंख, घंटा की घनघोर ध्वनि के साथ वेद की धुनि मानो ललकार-ललकार के हमारे शत्रु धर्म की जय मनाती है और हमारे ताप से कैसा भी मनुष्य क्यों न तपा हो, भगवती भागीरथी के जलकण मिले वायु से उसका हृदय एक साथ ही शीतल हो जाता है। इसके उपरांत शिशिशि......ध्वनि अलग मारे डालती है। हाय! कहाँ जायँ क्या करे? हमारी तो संसार से मानो जड़ ही कटी जाती है, भला और जगह तो कुछ हमारी चलती भी है, पर यहाँ तो मानो हमारा राज ही नहीं, कैसा भी बड़ा पापी क्यों न हो यहाँ आया कि गति भई!

( नेपथ्य में )

सच है "येषां क्वापि गतिर्नास्ति तेषां वाराणसी गतिः"

पाप---अरे रे! यह कौन महा भयंकर भेष अंग में भभूत पोते, एड़ी तक जटा लटकाए, लाल-लाल आँख निकाले साक्षात् काल की भॉति त्रिशूल घुमाता चला आता है। प्राण! तुम्हें जो अपनी रक्षा करनी हो तो भागो पाताल