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सत्यहरिश्चंद्र
में, अब इस समय भूमंडल में तुम्हारा ठिकाना लगना कठिन ही है।
( भागता हुआ जाता है )
( भैरव * आते हैं )
भैरव---सच है "येषां क्वापि गतिनास्ति तेषां वाराणसी गतिः"। देखो इतना बड़ा पुण्यशील राजा हरिश्चंद्र भी अपनी आत्मा और पुत्र बेचने को यहीं आया है! अहा! धन्य है सत्य! आज जब भगवान् भूतनाथ राजा हरिश्चंद्र का वृत्तांत भवानी से कहने लगे तो उनके तीनों नेत्र अश्रु से पूर्ण हो गए और रोमांच होने से सब शरीर के भस्मकण अलग-अलग हो गए। मुझको आज्ञा भी हुई है कि अलक्ष रूप से तुम सर्वदा राजा हरिश्चंद्र की अंगरक्षा करना, इससे चलूँ मैं भी भेस बदलकर भगवान् की आज्ञापालन में प्रवृत्त होऊँ।
( जाते हैं। जवनिका गिरती है )
- महादेवजी का सा सिगार, तीन नेत्र, नीला रग, एक हाथ में
त्रिशूल, दूसरे में प्याला।