पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/१९३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
७६
भारतेंदु-नाटकावली

हरि०---( पैरों पर गिरकर ) भगवन्! क्षमा कीजिए। यदि आज सूर्यास्त के पहिले मैं न दूँ तो जो चाहे कीजिएगा। मैं अभी अपने को बेचकर मुद्रा ले आता हूँ।

विश्वा०---( आप ही आप ) वाह रे महानुभावता ( प्रगट ) अच्छा अाज सॉझ तक और सही। सॉझ को न देगा तो मैं शाप ही न दूँगा, वरंच त्रैलोक्य में आज ही विदित कर दूँगा कि हरिश्चंद्र सत्य-भ्रष्ट हुआ।

[ जाते हैं

हरि०---भला किसी तरह मुनि से प्राण बचे। अब चलें अपना शरीर बेचकर दक्षिणा देने का उपाय सोचें। हा! ऋण भी कैसी बुरी वस्तु है, इस लोक में वही मनुष्य कृतार्थ है जिसने ऋण चुका देने को कभी क्रोधी और क्रूर लहनदार की लाल-लाल ऑखें नहीं देखी है। ( आगे चलकर ) अरे क्या बाजार में आ गए, अच्छा, ( सिर पर तृण* रखकर ) अरे सुनो भाई सेठ, साहूकार, महाजन, दूकानदारो, हम किसी कारण से अपने को पाँच हजार मोहर पर बेचते हैं, किसी को लेना हो तो लो। ( इसी तरह कहता हुआ इधर-उधर फिरता है ) देखो कोई दिन वह था कि इसी मनुष्य-विक्रय को अनुचित जानकर हम


  • उस काल में जब कोई दास्य स्वीकार करता था तो सिर पर तृण रखता था।