पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/१९४

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सत्यहरिश्चंद्र

दूसरे को दंड देते थे पर आज वही कर्म हम आप करते हैं। दैव बली है। ( 'अरे सुनो भाई' इत्यादि कहता हुआ इधर-उधर फिरता है। ऊपर देखकर ) क्या कहा? "क्यो तुम ऐसा दुष्कर कर्म करते हो?" आर्य यह मत पूछो, यह सब कर्म की गति है। ( ऊपर देखकर ) क्या कहा? "तुम क्या कर सकते हो, क्या समझते हो, और किस तरह रहोगे? इसका क्या पूछना है। स्वामी जो कहेगा वह करेंगे; समझते सब कुछ हैं, पर इस अवसर पर समझना कुछ काम नहीं आता, और जैसे स्वामी रखेगा वैसे रहेंगे। जब अपने को बेच ही दिया तब इसका क्या विचार है। ( ऊपर देखकर ) क्या कहा?" कुछ दाम कम करो।" आर्य हम लोग तो क्षत्रिय हैं, हम दो बात कहाँ से जाने। जो कुछ ठीक था कह दिया।

( नेपथ्य में से )

आर्यपुत्र! ऐसे समय में हमको छोड़े जाते हो! तुम दास होगे तो मैं स्वाधीन रहके क्या करूँगी? स्त्री को अर्द्धांगिनी कहते हैं, इससे पहिले बायाँ अंग बेच लो तब दहिना अंग बेचो।

हरि---( सुनकर बड़े शोक से ) हा! रानी की यह दशा इन आँखों से कैसे देखी जायगी?