पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/१९६

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सत्यहरिश्चंद्र

शैव्या---( 'कोई महात्मा' इत्यादि कहती हुई ऊपर देखकर ) क्या कहा? "क्या-क्या करोगी?" पर-पुरुष से संभाषण और उच्छिष्ट भाजन छोड़कर और सब सेवा करूँगी। ( ऊपर देखकर ) क्या कहा? "इतने माल पर कौन लेगा?" आर्य! कोई साधु ब्राह्मण महात्मा कृपा करके ले ही लेंगे।

( उपाध्याय और बटुक आते हैं )

उपा०---क्यो रे कौंडिन्य, सच ही दासी बिकती है?

बटु०---हाँ गुरुजी, क्या मैं झूठ कहूँगा? आप ही देख लीजिएगा।

उपा०---तो चल, आगे-आगे भीड़ हटाता चल। देख, धारा-प्रवाह की भाँति कैसे सब कामकाजी लोग इधर से उधर फिर रहे हैं, भीड़ के मारे पैर धरने की जगह नहीं है। और मारे कोलाहल के कान नहीं दिया जाता।

बटु०---( आगे-आगे चलता हुआ ) हटो भाई हटो। ( कुछ आगे बढ़कर ) गुरुजी, यह जहाँ भीड़ लगी है वहीं होगी।

उपा०---( शैव्या को देखकर ) अरे यही दासी बिकती है?

( शैव्या 'अरे कोई हमको मोल ले' इत्यादि कहती और रोती है। बालक भी माता की भाँति तोतली बोली से कहता है )

उपा०---पुत्रो! कहो तुम कौन-कौन सेवा करोगी?