शैव्या---पर-पुरुष से संभाषण और उच्छिष्ट-भोजन छोड़कर और जो-जो कहिएगा, सब सेवा करूँगी।
उपा०---वाह! ठीक है। अच्छा, लो यह सुवर्ण। हमारी ब्राह्मणी अग्निहोत्र की अग्नि की सेवा से घर के कामकाज नहीं कर सकती सो तुम सम्हालना।
शैव्या---( हाथ फैलाकर ) महाराज! आपने बड़ा उपकार किया।
उपा०---( शैव्या को भली भॉति देखकर आप ही आप ) अहा! यह निस्संदेह किसी बड़े कुल की है। इसका मुख सहज लज्जा से ऊँचा नहीं होता और दृष्टि बराबर पैर ही पर है। जो बोलती है वह धीरे-धीरे और बहुत सम्हाल के बोलती है। हा! इसकी यह गति क्यों हुई! ( प्रगट ) पुत्री! तुम्हारे पति हैं न?
( शैव्या राजा की ओर देखती है )
हरि०---( आप ही आप दुःख से ) अब नहीं हैं। पति के होते भी ऐसी स्त्री की यह दशा हो!
उपा०-( राजा को देखकर आश्चर्य से ) अरे यह विशालनेत्र, प्रशस्त वक्षःस्थल, और संसार की रक्षा करने के योग्य लंबी-लंबी भुजावाला कौन मनुष्य है, और मुकुट के योग्य सिर पर तृण क्यों रखा है? ( प्रगट ) महात्मा