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सत्यहरिश्चंद्र

तुम हमको अपने दुख का भागी समझो और कृपापूर्वक अपना सब वृत्तांत कहो।

हरि०---भगवन्! और तो विदित करने का अवसर नहीं है, इतना ही कह सकता हूँ कि ब्राह्मण के ऋण के कारण यह दशा हुई।

उपा०--–तो हमसे धन लेकर आप शीघ्र ही ऋण-मुक्त हूजिए!

हरि०---( दोनो कानो पर हाथ रखकर ) राम-राम! यह तो ब्राह्मण की वृत्ति है। आपसे धन लेकर हमारी कौन गति होगी!

उपा०---तो पाँच हज़ार मोहर पर आप दोनों में से जो चाहे से हमारे संग चले।

शैव्या---( राजा से हाथ जोड़कर ) नाथ! हमारे आछत आप मत बिकिए, जिसमें हमको अपनी आँख से यह न देखना पड़े, हमारी इतनी विनती मानिए। ( रोती है )

हरि०---( ऑसू रोककर ) अच्छा! तुम्हीं जाओ। ( आप ही आप ) हा! यह वज्रहृदय हरिश्चंद्र ही का है कि अब भी नहीं विदीर्ण होता!

शैव्या---( राजा के कपड़े में सोना बाँधती हुई ) नाथ! अब तो दर्शन भी दुर्लभ होगे। ( रोती हुई उपाध्याय से ) आर्य! आप क्षण भर क्षमा करें तो मैं आर्यपुत्र का

भा० ना०---६