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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/१९९

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भारतेंदु-नाटकावली

भली भाँति दर्शन कर लूँ। फिर यह मुख कहाँ और मैं कहाँ।

उपा---हाँ! हाँ! मैं जाता हूँ। कौंडिन्य यहाँ है, तुम उसके साथ आना।

[ जाता है

शैव्या---( रोकर ) नाथ! मेरे अपराधो को क्षमा करना।

हरि०---( अत्यंत घबड़ाकर ) अरे अरे विधाता! तुझे यही करना था! ( आप ही आप ) हा! पहिले महारानी बना कर अब दैव ने इसे दासी बनाया। यह भी देखना बदा था। हमारी इस दुर्गति से आज कुलगुरु भगवान् सूर्य का भी मुख मलिन हो रहा है। ( रोता हुआ प्रगट रानी से ) प्रिये! सर्व भाव से उपाध्याय को प्रसन्न रखना और सेवा करना।

शैव्या---( रोकर ) नाथ! जो आज्ञा।

बटु०---उपाध्यायजी गए, अब चलो जल्दी करो।

हरि०---(ऑखो में ऑसू भरके ) देवी! ( फिर रुककर अत्यंत सोच से आप ही आप ) हाय! अब मैं देवी क्यों कहता हूँ, अब तो विधाता ने इसे दासी बनाया। ( धैर्य से ) देवी, उपाध्याय की आराधना भली भॉति करना और उनके सब शिष्यो से भी सुहृद्-भाव रखना, ब्राह्मण की स्त्री की प्रीतिपूर्वक सेवा करना, बालक का यथासंभव पालन करना और अपने धर्म और प्राण की रक्षा करना।