पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/२०६

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सत्यहरिश्चंद्र

हरि०―हॉ हॉ, यह लीजिए! (मोहर देते हैं)

विश्वा०―(लेकर) स्वस्ति। (आप ही आप) बस अब चलो, बहुत परीक्षा हो चुकी। (जाना चाहते है)

हरि०―(हाथ जोड़कर) भगवन्! दक्षिणा देने में देर होने का अपराध क्षमा हुआ न?

विश्वा०—हॉ, क्षमा हुआ। अब हम जाते हैं।

हरि०―भगवन्! प्रणाम करता हूँ।

(विश्वामित्र आशीर्वाद देकर जाते हैं)

हरि०―अब चौधरीजी, (लजा से रुककर) स्वामी की जो आज्ञा हो वह करे।

धर्म―(मत्त की भॉति नाचता हुआ)

जावो अभी दक्खिनी मसान। लेव वहाँ कफ्फन का दान॥
जो कर तुमको नहीं चुकावे। सेा किरिया करने नहिं पावे॥
चलो घाट पर करो निवास। भए आज से हमरे दास॥

हरि०-जो आज्ञा।

(जवनिका गिरती है)
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