पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/२२३

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सत्यहरिश्चंद्र

"हरि०---प्रणाम करके ) महाराज! दासधर्म के यह विरुद्ध है। इस समय स्वामी से कहे बिना मेरा कुछ भी लेना स्वामी को धोखा देना है।

धर्म---( आश्चर्य से आप ही आप ) वाह रे महानुभावता!( प्रगट ) तो इससे स्वर्ण बनाकर आप अपना दास्य छुड़ा लें।

हरि०---यह ठीक है, पर मैंने तो विनती की न कि जब मैं दूसरे का दास हो चुका तो इस अवस्था में मुझे जो कुछ मिले सब स्वामी का है। क्योकि मैं तो देह के साथ ही अपना स्वत्वमात्र बेच चुका, इससे आप मेरे बदले कृपा करके मेरे स्वामी ही को यह रसेंद्र दीजिए।

धर्म---( आश्चर्य से आप ही आप ) धन्य हरिश्चंद्र! धन्य तुम्हारा धैर्य! धन्य तुम्हारा विवेक! और धन्य तुम्हारी महानुभावता! या---

चलै मेरु बरु प्रलय जल पवन झकोरन पाय।
पै बीरन के मन कबहुँ चलहिं नहीं ललचाय॥

तो हमें भी इसमें कौन हठ है। ( प्रत्यक्ष ) बैताल! जाओ, जो महाराज की आज्ञा है वह करो।

बैताल---जो रावलजी की आज्ञा।

[ जाता है

धर्म---महाराज! ब्राह्ममुहूर्त निकट आया, अब हमको भी आज्ञा हो।