सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/२२५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१०९
सत्यहरिश्चंद्र

हम लोग विघ्नों से छूटकर स्वतंत्र हो गए, अब हम आपके वश में हैं। जो आज्ञा हो, करें। हम लोग अष्ट महासिद्धि, नव निधि और बारह प्रयोग सब आपके हाथ में हैं।

हरि०---( प्रणाम करके ) यदि हम पर आप लोग प्रसन्न हों तो महासिद्धि योगियों के, निधि सजनों के और प्रयोग साधकों के पास जाओ।

देवता---( आश्चर्य से ) धन्य राजर्षि हरिश्चंद्र! तुम्हारे बिना और ऐसा कौन होगा जो घर आई लक्ष्मी का त्याग करे। हमी लोगों की सिद्धि को बड़े-बड़े योगी मुनि पच मरते हैं। पर तुमने तृण की भाँति हमारा त्याग करके जगत् का कल्याण किया।

हरि०---आप लोग मेरे सिर आँखों पर हैं पर मैं क्या करूँ क्योकि मैं पराधीन हूँ। एक बात और भी निवेदन है। वह यह कि छः अच्छे प्रयोगों की तो हमारे समय में सद्य:- सिद्धि होय पर बुरे प्रयोगों की सिद्धि विलंब से हो।

देवता---महाराज! जो आज्ञा। हम लोग जाते हैं। आज अपके सत्य ने शिवजी के कीलन* को भी शिथिल कर दिया। महाराज का कल्याण हो।

[ जाते हैं


  • शिवजी ने साधनमात्र को कील दिया है जिसमें जल्दी न सिद्ध