( नेपथ्य में इस भाँति मानो राजा हरिश्चंद्र नहीं सुनता )
( एक स्वर से ) तो अप्सरा को भेजें। ( दूसरे स्वर से ) छिः मूर्ख! जिसको अष्ट सिद्धि नव निधियों ने नहीं डिगाया उसको अप्सरा क्या डिगावेंगी? ( एक स्वर से ) तो अब अंतिम उपाय किया जाय? ( दूसरे स्वर से ) हाँ, तक्षक को आज्ञा दे। अब और कोई उपाय नहीं है!
हरि०---अहा! अरुण उदय हुआ चाहता है। पूर्व दिशा ने अपना मुँह लाल किया। ( सॉस लेकर )
"वा चकई को भयो चित चीतो चितोति चहूँ दिसि चाय सों नाँची।
ह्वै गई छीन कलाधर की कला जामिनि जोति मनों जम जाँची॥
बोलत बैरी बिहंगम 'देव' सँजोगिन की भई संपति कॉची।
लोहू पियो जो बियोगिन को सो कियो मुख लाल पिशाचिनि प्राची॥"
हा! प्रिये! इन बरसात की रातों को तुम रो-रो के बिताती होगी! हा! वत्स रोहिताश्व, भला हम लोगों ने तो अपना शरीर बेचा तब दास हुए, तुम बिना बिके ही क्यों दास बन गए?
जेहि सहसन परिचारिका राखत हाथहिं हाथ।
सो तुम लोटत धूर में दास-बालकन साथ॥
हों सो राजा हरिश्चंद्र ने विघ्नों को जो रोक दिया इसमें वह कीलन भी शिवजी की इच्छापूर्वक उस समय दूर हो गया था, क्योंकि यह भी तो एक सबमें बड़ा विघ्न था।