पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/२२७

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सत्यहरिश्चंद्र

जाकी आयसु जग नृपति सुनतहि धारत सीस।
तेहि द्विज-बटु आज्ञा करत, अहह कठिन अति ईस॥
बिनु तन बेचे बिनु दिए, बिनु जग ज्ञान बिबेक।
द्वैव-सर्प दंशित भए, भोगत कष्ट अनेक॥

( घबड़ाकर ) नारायण! नारायण! मेरे मुख से क्या निकल गया? देवता उसकी रक्षा करें। ( बाईं अॉख का फड़कना दिखाकर ) इसी समय में यह महा अपशकुन क्यों हुआ? ( दाहिनी भुजा का फड़कना दिखाकर ) अरे और साथ ही यह मंगल-शकुन भी!न जाने क्या होनहार है! वा अब क्या होनहार है? जो होना था सो हो चुका। अब इससे बढ़कर और कौन दशा होगी? अब केवल मरणमात्र बाकी है। इच्छा तो यही है कि सत्य छूटने और दीन होने के पहले ही शरीर छूटे, क्योकि इस दुष्ट चित्त का क्या ठिकाना है, पर वश क्या है?

( नेपथ्य में )

पुत्र हरिश्चंद्र! सावधान। यही अंतिम परीक्षा है। तुम्हारे पुरुषा इक्ष्वाकु से लेकर त्रिशंकु पर्यंत आकाश में नेत्र भरे खड़े एकटक तुम्हारा मुख देख रहे हैं। अाज तक इस वंश में ऐसा कठिन दुःख किसी को नहीं हुआ था। ऐसा न हो कि इनका सिर नीचा हो। अपने धैर्य का स्मरण करो।