पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/२३९

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सत्यहरिश्चंद्र

शैव्या---( रोती हुई ) नाथ! मेरे पास तो एक भी कपड़ा नहीं था, अपना आँचल फाड़कर इसे लपेट लाई हूँ, उसमें से भी जो अाधा दे दूँगी तो यह खुला रह जायगा! हाय! चक्रवर्ती के पुत्र को आज कफन नहीं मिलता! ( बहुत रोती है )

हरि०---( बलपूर्वक आँसुओ को रोककर और बहुत धीरज धर- कर ) प्यारी! रो मत। ऐसे समय में तो धीरज और धरम रखना काम है। मैं जिसका दास हूँ उसकी आज्ञा है कि बिना आधा कफन लिए क्रिया मत करने दो। इससे मैं यदि अपनी स्त्री और अपना पुत्र समझकर तुमसे इसका आधा कफन न लूँ तो बड़ा अधर्म हो। जिस हरिश्चंद्र ने उदय से अस्त तक की पृथ्वी के लिये धर्म न छोड़ा उसका धर्म आध गज कपड़े के वास्ते मत छुड़ाओ और कफन से जल्दी आधा कपड़ा फाड़ दो। देखो, सबेरा हुआ चाहता है, ऐसा न हो कि कुलगुरु भगवान् सूर्य अपने वंश की यह दुर्दशा देखकर चित्त में उदास हों। ( हाथ फैलाता है )

शैव्या---( रोती हुई ) नाथ! जो आज्ञा।

( रोहिताश्व का मृतकंबल फाड़ा चाहती है कि रगभूमि की पृथ्वी हिलती है, तोप छूटने का सा बडा शब्द और बिजली का सा उजाला होता है। नेपथ्य में बाजे की और बस धन्य और जय जय की ध्वनि होती है,