सूत्र०---क्या कोई परिणाम होना अभी बाकी है? हो चुका जो होना था।
पारि०---तो फिर आज जो ये लोग आए हैं सो यही सुनने आए हैं।
सूत्र०---तो ये सब सभासद तो उसके मित्रवर्गों में हैं और जो मित्रवर्गों में नहीं हैं उनका जी भी तो उसी की बातों में लगता है। ये क्यों न इन बातों को आनन्दपूर्वक सुनेंगे?
पारि०---परन्तु मित्र बातों ही से तो काम न चलेगा न! देखो ये हिन्दी भाषा में नाटक देखने की इच्छा से आए हैं, इन्हें कोई खेल दिखाओ।
सूत्र०---आज मेरा चित्त तो उन्हीं के चरित्र में मगन है। आज मुझे और कुछ नहीं अच्छा लगता।
पारि०---तो उनके चरित्र के अनुरूप ही कोई नाटक करो।
सूत्र०---ऐसा कौन नाटक है? यो तो सभी नायकों के चरित्र किसी-किसी विषय में उनसे मिलते हैं, पर आनुपूर्वी चरित्र कैसे मिलेगा?
पारि०---मित्र! मृच्छकटिक हिन्दी में खेलो, क्योकि उसके नायक चारुदत्त का चरित्रमात्र उनसे सब मिलता है, केवल वसंत-सेना और राजा की हानि है।
सूत्र०---तो फिर भी आनुपूर्वी न हुआ और पुराने नाटक खेलने में इनका जी भी न लगेगा, कोई नया खेलें।