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प्रेमजोगिनी

स्मरण नहीं आता, अनेक ऐसे-ऐसे धुरंधर पंडित हुए हैं, जिनकी विद्या मानो मंडन मिश्र की परंपरा पूरी करती थी।

जहाँ विदेशी अनेक तत्ववेत्ता धामिक धनीजन घर-बार कुटुंब देश-विदेश छोड़कर निवास करते हुए तत्त्वचिंता में मग्न सुख-दुःख भुलाए संसार को यथारूप में देखते सुख से निवास करते हैं। आत्मानंद हंस जी को देख लीजिए।

जहाँ पंडित लोग विद्यार्थियो को ऋक्, यजुः, साम, अथर्ष, महाभारत, रामायण, पुराण, उपपुराण, स्मृति, न्याय, व्याकरण, सांख्य, पातंजल, वैशेषिक, मीमांसा, वेदांत, शैव, वैष्णव, अलंकार, साहित्य, ज्योतिष इत्यादि शास्त्र सहज में पढ़ाते हुए मूर्तिमान गुरु और व्यास से शोभित काशी की विद्यापीठता सत्य करते हैं।

जहाँ भिन्न देशनिवासी आस्तिक विद्यार्थीगण परस्पर देवमंदिरों में, घाटों पर, अध्यापकों के घर में, पंडित-सभाओ में वा मार्ग में मिलकर शास्त्रार्थ करते हुए अनर्गल धारा-प्रवाह संस्कृत-भाषण से सुननेवालों का चित्त हरण करते हैं।

जहाँ स्वर लय छंद मात्रा, हस्तकंपादि से शुद्ध वेदपाठ की ध्वनि से जो मार्ग में चलते वा घर बैठे सुन पड़ती है, तपोवन की शोभा का अनुभव होता है।

जहाँ द्रविड़, मगध, कान्यकुब्ज, महाराष्ट्र, बंगाल, पंजाब,

भा० ना०---११