पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/२७६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१६२
भारतेंदु-नाटकावली

गुजरात इत्यादि अनेक देश के लोग परस्पर मिले हुए अपना-अपना काम करते दिखाते हैं और वे एक-एक जाति के लोग जिन मुहल्लो में बसे हैं वहाँ जाने से ऐसा ज्ञात होता हैं मानो उसी देश में आए हैं, जैसे बंगाली टोले में ढाके का, लहौरी टोले में अमृतसर का और ब्रह्माघाट में पूने का भ्रम होता है।

जहाँ निराहार, पयाहार, यताहार, भिक्षाहार, रक्ताम्बर, श्वेताम्बर, नीलाम्बर, चार्माम्बर, दिगम्बर, दंडी, संन्यासी, ब्रह्मचारी, योगी, यती, सेवड़ा, फकीर, सुथरेसाई, कनफटे, ऊर्ध्वबाहु, गिरी, पुरी, भारती, वन, पर्वत, सरस्वती, किनारामी, कबीरी, दादूपंथी, नान्हकसाही, उदासी, रामानंदी, कौल, अघोरी, शैव, वैष्णव, शाक्त, गाणपत्य, सौर इत्यादि हिंदू और ऐसे ही अनेक भॉति के मुसलमान फकीर नित्य इधर से उधर भिक्षा उपार्जन करते फिरते हैं और इसी भॉति सब अंधे, लँगड़े, लूले, दीन, पंगु, असमर्थ लोग भी भिक्षा पाते हैं, यहाँ तक कि आधी काशी केवल दाता लोगो के भरोसे नित्य अन्न खाती है।

जहाँ हीरा, मोती, रुपया, पैसा, कपड़ा, अन्न, घी, तेल, अतर, फुलेल, पुस्तक, खिलौने इत्यादि की दूकानों पर हजारों लोग काम करते हुए माल लेते बेंचते दलाली करते दिखाई पड़ते हैं।