पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/२८७

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प्रेमजोगिनी

माधव शास्त्री---भाई, मुझे क्यों नाहक इसमें डालते हो---

गप्प पंडित---अच्छा, जो होय मुझे उसके नाम से क्या काम। व्यक्ति मैंने जानी परन्तु माधव जी आप कहते हैं और मुझसे उनसे भी पूर्ण परिचय है और उनको उनका नाम सच शोभता है, परन्तु भाई वे तो बडे आढ्य मान्य हैं और कंजूस भी हैं---और क्या तुमसे उनसे मित्रता मुझसे अधिक नहीं है। यहाँ तक शयनासन तक वे तुमको परकीय नहीं समझते।

माधव शास्त्री---पंडित जी! वह सर्व ठीक है, परन्तु अब वह भूतकालीन हुई। कारण 'अति सर्वत्र वर्जयेत्'---

बुभु०---हाँ पंडित जी! अब क्षण भर इधर बूटी को देखिए, लीजिए। ( एक कटोरा देकर पुनः दूसरा देते हैं )

गप्प पंडित---वाह दीक्षित जी, बहुत ही बढिया हुई।

चंबूभट्ट---( सब को बूटी देकर अपनी पारी आई देख कर ) हाँ हॉ दीक्षित जी, तिकड़ेच खतम करा मी आज काल पीत नाहीं।

गोपाल, माधव---कॉ भटजी! पुरे आतां, हे नखरे कुठे शिक- लात, या---प्या---हवेने व्यर्थ थंडी होते।

चंबूभट्ट---नाहीं भाई मी सत्य साँगतों, मला सोसत नाहीं। तुम्हाला माझे नखरे वाटतात पण हे प्रायः इथले काशी-तलेच आहेत, व अपल्या सारख्यांच्या परम प्रियतम