पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/२९

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पंच-रत्न बताया है। "श्रीमान् यावदार्य कुल कमल दिवाकर" ने विदा में बाबू साहब को ५०० का खिलअत दिया। उक्त बाबू साहब ता॰ २४ दिसम्बर को उदयपुर से चित्तौड़ को रवाना हुए। सं॰ १८४१ वि॰ (नवम्बर सन् १८८४ ई॰) में यह निमंत्रित होकर व्याख्यान देने के लिए बलिया गए थे। व्याख्यान के विज्ञापन में यह 'शाअर मारूफ बुलबुले हिन्दुस्तान' लिखे गए थे। बलिया इंस्टीट्यूट में ५वीं नवम्बर को वहाँ के तत्कालीन कलक्टर के सभापतित्व में यह व्याख्यान बड़े समारोह से हुआ था। 'सत्यहरिश्चन्द्र' तथा 'नीलदेवी' का अभिनय भी हुआ था। इन स्थानो के सिवा आप डुमराँव, पटना, कलकत्ता, प्रयाग, हरिहरक्षेत्र आदि स्थानो को भी प्रायः जाया करते थे।

भारतेन्दु जी कद के लम्बे थे और शरीर से एकहरे थे, न अत्यंत कृश और न अत्यंत मोटे ही। आँख कुछ छोटी और धँसी हुई सी थी तथा नाक बहुत सुडौल थी। कान कुछ बड़े थे, जिन पर घुँघराले बालों आकृति, स्वभाव तथा शील की लटे लटकती रहती थीं। ऊँचा ललाट इनके भाग्य का द्योतक था। इनका रंग साँवलापन लिए हुए था। शरीर की कुल बनावट सुडौल थी। इनके इस शारीरिक सौंदर्य पूर्ण मूर्ति का इनसे मिलने वालो के हृदय पर उतना ही असर होता था, जितना इनके मानसिक सौंदर्य का। इनके समय के कई वृद्ध जन कहते हैं कि उस समय लोग उनको 'कलियुग का कँधैया' कहा करते थे। भोजन में इनकी रुचि विशेषतः नमकीन वस्तुओं की ओर अधिक थी। मिष्ठान्न में भी सोंधी चीज ही इन्हें प्रिय थी। फलों पर भी इनका विशेष प्रेम था। पान खाने का इन्हें