पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/३०

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व्यसन सा था। यह स्वभाव ही से अत्यंत कोमल हृदय के थे। किसी के कष्ट की कथा सुनकर ही उस पर इनकी सहानुभूति हो जाती थी चाहे वह वस्तुतः झूठी मक्कारी ही क्यो न हो। यह दुख सुख दोनों ही में प्रसन्न रहते थे और कभी क्रोध करते ही न थे। क्रोध आता भी था तो उसे शांति से दबा लेते, चाहे वह उस क्रोध के पात्र से भाषण भी न करें। यह स्वभाव से नम्र थे परन्तु किसी के अभिमान दिखलाने पर उसे सहन नहीं कर सकते थे।

भारतेन्दु जो सत्यप्रिय थे। वे स्वयम् जानते थे कि 'सत्यधर्म पालन हँसी खेल नहीं है' और सत्य पथ पर चलने वाले कितना कष्ट उठाते हैं? इन्होने इस व्रत को यथाशक्ति आजन्म निबाहा। यह स्वभावतः विनोदी थे। उर्दू शायरों की जिंदादिलो ( सजीवता ) इनके नस नस में समाई थी। यह गम्भीर मुहर्रमी सूरत वाले नहीं थे और धन तथा घर के लोगों के कारण इन्हें जो कष्ट था वह इनके मुख पर नहीं झलकता था। यह सदा प्रसन्न चित्त और प्रेम में मग्न रहते थे। गुणग्राहकता के भारतेन्दु जी स्वरूप ही थे। केवल कवियों के ही आश्रयदाता या कविता ही के गुणग्राहक नहीं थे प्रत्युत प्रत्येक गुण या उत्तम वस्तु के ग्राहक थे। इनके पास कोई भी किसी प्रकार की उत्तम वस्तु लेकर आता तो वह विमुख होकर नहीं लौटता था। हिन्दी मातृमंदिर के साधारण से साधारण पुजारी का भी यह सम्मान करते थे, किसी अन्य विद्या या कौशल के पंडित का पूरा सत्कार करते थे, यहाँ तक कि अपव्ययी या फिजूलखर्ची