पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/३१

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कहला कर भी अच्छे वस्तु के विक्रेता को कोरा नहीं लौटाते थे। इसलिए लोगो ने कहा है—

सब सज्जन के मान को कारन इक हरिचन्द।

भारतेन्दु जी हिंदू-समाज के अंतर्गत् अग्रवाल वैश्य जाति के थे और इनका धर्म श्री वल्लभीय वैष्णव समाज सुधार, देश सेवासम्प्रदाय था। पुराने विचारों की जड़ अँग्रेजी साम्राज्य के जम जाने तथा यूरोपीय सभ्यता के फैलने से वहाँ की विचार धारा के संघर्ष से हिल चली थी। पुराने तथा नवीन विचार वाले दोनो पक्ष अपने-अपने हठ पर अड़े थे। एक पक्ष दूसरे को 'नस्तिक, किरिस्तान, भ्रष्ट, कह रहे थे तो दूसरे उन्हें 'कूपमण्डूक अंध विश्वासी' आदि की पदवी दे रहे थे। दोनों ही पक्ष वाले इनसे अपने-अपने पक्ष के समर्थन होने की आशा कर रहे थे पर ये सत्य के सच्चे भक्त थे और जो कुछ इन्होंने देश तथा समाज के लिए उचित समझा उसे निःसंकोच होकर कह डाला। यह वर्ण व्यवस्था मानते थे और वैष्णव धर्म के पक्के अनुगामी थे। साथ ही समाज के दोषों का निराकरण भी उचित समझते थे।

मातृ-भाषा भक्त भारतेन्दु जी के हृदय में देश-सेवा करने का उत्साह कम नहीं था और इन्होंने प्रायः साथ ही साथ दोनों कार्यों में हाथ लगा दिया था। जगन्नाथपुरी से लौटने हर देशोपकारक बाबू हरिश्चन्द्र ने पाश्चात्य शिक्षा का अभाव तथा उसकी आवश्यकता देखकर अपने गृह पर ही एक अंग्रेजी तथा हिन्दी की पाठशाला खोली। इस पाठशाला का पहिला नाम