पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/३१०

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श्रीचंद्रावली

चंद्रा०---और फिर इनका हठ ऐसा है कि जिसकी छबि पर रीझते हैं उसे भूलते नहीं, और कैसे भूलें, क्या यह भूलने के योग्य है, हा!

नैना वह छबि नाहिंन भूले।
दया-भरी चहुँ दिसि की चितवनि नैन कमल-दल फूले॥
वह भावनि, वह हँसनि छबीली, वह मुसकनि चित चोरै।
वह बतरानि, मुरनि हरि की वह, वह देखन चहुँ कोरैं॥
वह धीरी गति कमल फिरावन कर लै गायन पाछे।
वह बीरी मुख बेनु बजावनि पीत पिछौरी काछे॥
परबस भए फिरत हैं नैना इक छन टरत न टारे।
हरि-ससि-मुख ऐसी छबि निरखत तनमन धन सब हारे॥

ललिता---सखी मेरी तो यह विपति भोगी हुई है, इससे मैं तुझे कुछ नहीं कहती; दूसरी होती तो तेरी निंदा करती और तुझे इससे रोकती।

चंद्रा०---सखी, दूसरी होती तो मैं भी तो उससे यों एक संग न कह देती। तू तो मेरी आत्मा है। तू मेरा दुःख मिटावेगी कि उलटा समझावेगी?

ललिता---पर सखी, एक बड़े आश्चर्य की बात है कि जैसी तू इस समय दुखी है वैसी तू सर्वदा नहीं रहती।

चंद्रा---नहीं सखी, ऊपर से दुखी नहीं रहती पर मेरा जी जानता है जैसे रातें बीतती हैं।