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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/३२

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'चौखम्भा स्कूल' था और इसका कुल व्यय भारतेन्दु जी स्वयम् चलाते थे। सन् १८८५ ई० में भारतेन्दु जी की मृत्यु के अनन्तर राजा शिव प्रसाद जी के प्रस्ताव तथा सभापति मि० एडम्स कलेक्टर साहब के अनुमोदन पर इसका नाम 'हरिश्चन्द्र स्कूल' रखा गया। अब यह स्कूल हरिश्चन्द्र हाई स्कूल कहलाता है। 'निजभाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल' मंत्र-को मानने वाले भारतेन्दु जी स्कूल खोलने के बाद ही से मातृभाषा की सेवा की ओर झुक पड़े। हिन्दी समाचार पत्रों की कमी देखकर 'कवि-वचन-सुधा,' 'हरिश्चन्द्र मैगजीन,' 'हरिश्चन्द्र-चन्द्रिका' तथा 'बाला-बोधिनी' आदि पत्र आपने अपने व्यय से निकाले और दूसरो को सहायता देकर अनेक पत्र प्रकाशित कराए। इन पत्रों से बराबर धन की हानि होती रही। हिन्दी में पुस्तको का अभाव देखकर समयानुकूल पुस्तकों की रचना आरम्भ की और हिन्दुओ में हिन्दी के प्रति प्रेम कम देखकर उन्हें स्वयम् प्रकाशित कर बिना मूल्य वितरण करना आरम्भ कर दिया। अन्य लोगों को भी हिन्दी ग्रन्थ-रचना का उत्साह दिलाकर बहुत सी पुस्तकें प्रकाशित कराई।

सं० १९२७ में भारतेन्दु जी ने 'कविता-वर्द्धिनी-सभा' स्थापित की जो इनके घर पर या रामकटोरा बाग में हुआ करती थी। सरदार, सेवक, दीनदयालगिरि, मन्नालाल 'द्विज', दुर्गादत्त गौड़ 'दत्त', नारायण, हनुमान आदि अनेक प्रतिष्ठित कवि गण उस सभा में पाते थे। व्यास गणेशराम को इसी सभा ने प्रशंसा पत्र दिया था। साहित्याचार्य पं० अम्बिकादत्त व्यास