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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/३११

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भारतेंदु-नाटकावली

मनमोहन तें बिछुरी जब सो
तन आँसुन सों सदा धोवती हैं।
'हरिचंद जू' प्रेम के फंद परी
कुल की कुल लाजहि खोवती हैं॥
दुख के दिन कों कोउ भॉति बितै
बिरहागम रैन सँजोवती हैं।
हमही अपुनी दशा जानै सखी,
निसि सोवती हैं किधौं रोवती हैं॥

ललिता---यह हो पर मैंने तुझे जब देखा तब एक ही दशा में देखा और सर्वदा तुझे अपनी आरसी वा किसी दर्पण में मुँह देखते पाया पर वह भेद अाज खुला।

हौं तो याही सोच मैं बिचारत रही री काहे
दरपन हाथ तें न छिन बिसरत है।
त्यौंही 'हरिचंद जू' बियोग औ सॅजोग दोऊ
एक से तिहारे कछु लखि न परत है॥
जानी आज हम ठकुरानी तेरी बात
तू तौ परम पुनीत प्रेम पथ बिचरत है।
तेरे नैन मूरति पियारे की बसति, ताहि
पारसी मैं रैन-दिन देखिबो करत है॥

सखी! तू धन्य है, बड़ी भारी प्रेमिन है और प्रेम शब्द को सार्थ करनेवाली और प्रेमियों की मंडली की शोभा है।