चंद्रा०---नहीं सखी! ऐसा नहीं है। मैं जो आरसी देखती थी उसका कारण कुछ दूसरा ही है। हा! ( लंबी सॉस लेकर ) सखी! मैं जब पारसी में अपना मुँह देखती और अपना रंग पीला पाती थी तब भगवान् से हाथ जोड़कर मनाती थी कि भगवान्, मैं उस निर्दयी को चाहूँ पर वह मुझे न चाहे, हा! ( ऑसू टपकते हैं )
ललिता---सखी, तुझे मैं क्या समझाऊँगी, पर मेरी इतनी बिनती है कि तू उदास मत हो। जो तेरी इच्छा हो, पूरी करने को उद्यत हूँ।
चंद्रा०---हा! सखी यही तो आश्चर्य है कि मुझे कुछ इच्छा नहीं है और न कुछ चाहती हूँ। तौ भी मुझको उसके वियोग का बड़ा दुख होता है।
ललिता---सखी, मैं तो पहिले ही कह चुकी कि तू धन्य है। संसार में जितना प्रेम होता है, कुछ इच्छा लेकर होता है और सब लोग अपने ही सुख में सुख मानते हैं, पर उसके विरुद्ध तू बिना इच्छा के प्रेम करती है और प्रीतम के सुख से सुख मानती है। यह तेरी चाल संसार से निराली है। इसी से मैंने कहा था कि तू प्रेमियों के मंडल को पवित्र करने वाली है।
( चंद्रावली नेत्रों में जल भर कर मुख नीचा कर लेती है )