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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/३१४

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दूसरा अंक

स्थान---केले का वन

समय संध्या का, कुछ बादल छाए हुए

( वियोगिनी बनी हुई श्रोचद्रावलीजी आती हैं )

चंद्रा०---( एक वृक्ष के नीचे बैठकर ) वाह प्यारे! वाह! तुम और तुम्हारा प्रेम दोनों विलक्षण हैं; और निश्चय बिना तुम्हारी कृपा के इसका भेद कोई नहीं जानता; जानें कैसे? सभी उसके अधिकारी भी तो नहीं हैं। जिसने जो समझा है उसने वैसा ही मान रखा है। हा! यह तुम्हारा जा अखंड परमानंदमय प्रेम है और जो ज्ञान वैराग्यादिकों को तुच्छ करके परम शांति देने वाला है उसका कोई स्वरूप ही नहीं जानता, सब अपने ही सुख में और अभिमान में भूले हुए हैं; कोई किसी स्त्री से वा पुरुष से उसको सुंदर देखकर चित्त लगाना और उससे मिलने के अनेक यत्न करना इसी को प्रेम कहते हैं, और कोई ईश्वर को बड़ी लंबी-चौड़ी पूजा करने को प्रेम कहते हैं---पर प्यारे! तुम्हारा प्रेम इन दोनों से विलक्षण है, क्योंकि यह अमृत तो उसीको मिलता है जिसे तुम आप देते हो। ( कुछ ठहरकर ) हाय! किससे