पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/३३

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को सुकवि की पदवी तथा प्रशंसापत्र इसी में दिया गया था। कवि-समाज भी होता रहता था और मुशायरा भी। सं॰ १९३० वि॰ में 'पेनीरीडिंग' क्लब स्थापित हुआ जिसमें अच्छे-अच्छे लेखकों के लेख पढ़े जाते थे। 'तदीय समाज' सं॰ १९३० वि॰ में स्थापित हुआ था जिसका उद्देश्य ही धर्म तथा ईश्वर-प्रेम था। गोवध रोकने के लिए इस समाज के उद्योग से साठ सहस्र हस्ताक्षर सहित एक प्रार्थना-पत्र दिल्ली दरबार के अवसर पर भेजा गया था। गोमहिमा आदि लेख लिख कर भी ये यह बराबर आन्दोलन मचाते रहे।

सं॰ १९२७ वि॰ में भारतेन्दु जी तथा इनके छोटे भाई में बँटवारा हो चुका था और ये अपने गृह के लोगों द्वारा "अपव्ययी" समझ लिए गए थे। भारतेन्दु जी सांसारिक झंझटों से दूर होकर मातृभाषा की और देश चिंता तथा मृत्युकी सेवा में निरत रहते थे। हिन्दी तथा देश के लिए तो इनका हृदय चिन्ता-दग्ध था ही, उस पर अपने ही लोगों की—जिनके लिए यह अपना तन-मन-धन अर्पण कर रहे थे उनकी उदासीनता भी इनका हृदय जर्जर कर रही थी। इसी आत्मक्षोभ का उद्गार सं— १७३२ वि॰ में निर्मित "सत्यहरिश्चंद्र" तथा "प्रेमयोगिनी" की भूमिका में अधिक प्रगट हुआ है। परन्तु ऐसे प्रसन्न चित्त विनोद प्रिय कवि के हृदय में यह आत्मक्षोभ अधिक नहीं टिका। हाँ, इसका प्रभाव अवश्य बना रहा। धीरे धीरे भारतेन्दु जी का अर्थ-संकोच इतना बढ़ा कि जमा गायब हो गई और ऋण-बोझ ऊपर पड़ गया। एक-एक के दो लिखवाने वालों ने जल्दी कर डिगरियाँ प्राप्त कर ली और

भा॰ ना॰ भू॰—३