बन०---सो कहाँ सों भाग जायगो?
चंद्रा०---फेर बके जाय है, अरी मैंने अपनी ऑखिन मैं मूंदि राख्यौ है सो तू चिल्लायगी तो निकसि भागैगो।
( बनदेवी चंद्रावली की पीठ पर हाथ फेरती है )
चंद्रा०---( जल्दी से उठ, बनदेवी का हाथ पकड़कर ) कहो प्राणनाथ! अब कहाँ भागोगे?
( बनदेवी हाथ छुडाकर एक ओर वर्षा-संध्या दूसरी ओर वृक्षों के पास हट जाती हैं )
चंद्र०---अच्छा क्या हुआ, योंही हृदय से भी निकल जाओ तो जानूँ, तुमने हाथ छुड़ा लिया तो क्या हुआ मैं तो हाथ नहीं छोड़ने की। हा! अच्छी प्रीति निबाही!
( बनदेवी सीटी बजाती है )
चंद्रा०---देखो दुष्ट का, मेरा तो हाथ छुड़ाकर भाग गया, अब न जानें कहाँ खड़ा बंसी बजा रहा है। अरे छलिया कहाँ छिपा है? बोल बोल कि जीते जी न बोलेगा! ( कुछ ठहरकर ) मत बोल, मैं आप पता लगा लूँगी। ( बन के वृक्षों से पूछती है ) अरे वृक्षो, बताओ तो मेरा लुटेरा कहाँ छिपा है? क्यों रे मोरो, इस समय नहीं बोलते? नहीं तो रात को बोल-बोल के प्राण खाए जाते थे। कहो न वह कहाँ छिपा है? ( गाती है )