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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/३२४

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श्रीचंद्रावली

अहो अहो बन के रूख कहूँ देख्यौ पिय प्यारो।
मेरो हाथ छुड़ाइ कहौ वह कितै सिधारो॥
अहो कदंब अहो अंब-निंब अहो बकुल-तमाला।
तुम देख्यौ कहुँ मनमोहन सुंदर नँदलाला॥
अहो कुंज बन लता बिरुध तृन पूछत तोसों।
तुम देखे कहुँ श्याम मनोहर कहहु न मोसो॥
अहो जमुना अहो खग मृग हो अहो गोबरधन गिरि।
तुम देखे कहुँ प्रानपियारे मनमोहन हरि॥

( एक एक पेड़ से जाकर गले लगती है। बनदेवी फिर सीटी बजाती है )

चंद्रा०---अहा! देखो उधर खड़े प्राणप्यारे मुझे बुलाते हैं, तो चलो उधर ही चलें। ( अपने आभरण सँवारती है )

( वर्षा और संध्या पास आती हैं )

व०---( हाथ पकड़कर )

कहाँ चली सजि कै?---

चंद्रा०---पियारे सो मिलन काज,---

व०---कहाँ तू खड़ी है?---

चंद्रा०---प्यारे ही को यह धाम है।

व०---कहा कहै मुख सों?---

चंद्रा०---पियारे प्रान प्यारे---