इनसे रुपये वसूल करने का उपाय करने लगे। इस प्रकार देश, समाज, तथा मातृभाषा आदि की उन्नति और अपनी कौटुम्बिक तथा ऋण आदि की चिन्ताओं से ग्रस्त होने के कारण इनका शरीर जर्जर हो रहा था। इसी समय मेवाड़पति महाराणा सज्जनसिंह के आग्रह तथा श्रीनाथ जी के दर्शन की लालसा से सन् १८८२ ई० में यह उदयपुर गए। इतनी लम्बी यात्रा के प्रयास को इनका जीर्ण-शीर्ण शरीर न सह सका। यह बीमार पड़ गए और श्वास, खाँसी तथा ज्वर तीनो प्रबल हो उठे। यो ही प्राणभय उपस्थित था, उसपर एकाएक एक दिन हैजा का इनपर कड़ा अाक्रमण हुआ। यहाँ तक कि कुल शरीर ऐंठने लगा पर अभी आयुष्य थी, इससे बच गए।
अभी यह पूर्णतया स्वस्थ नहीं हुए थे कि शरीर की चिता छोड़कर अपने लिखने-पढ़ने आदि के कार्यों में लग गए। दवा भी कौन करता है? जब रोग प्रबल थे तब सभी को चिंता थी। रोग निर्बल होते ही अन्य सांसारिक विचारादि प्रबल हो गए। अस्तु, रोग इस प्रकार दब गए थे, पर जड़मूल से नष्ट नहीं हुए थे। रोग दिन-दिन अधिक होता गया, महीनों में शरीर अच्छा हुआ। लोगों ने ईश्वर को धन्यवाद दिया। यद्यपि देखने मेन कुछ दिन तक रोग मालूम न पड़ा पर भीतर रोग बना रहा और जड़ से नहीं गया। बीच में दो एक बार उभड़ आया था पर शांत हो गया था। इधर दो महीने से फिर श्वास चलता था, कभी-कभी ज्वर का आवेश भी हो जाता था। औषधि होती रही, शरीर कृषित तो हो चला था पर ऐसा नहीं था कि जिससे किसी काम में हानि होती, श्वास अधिक हो चला, क्षयी के चिन्ह पैदा