पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/३३०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२१७
श्रीचंद्रावली

चद्रा०---( घबड़ाकर ) का सूरज निकस्यो? भोर भयो। हाय! हाय! हाय! या गरमी में या दुष्ट सूरज की तपन कैसें सही जायगी। अरे भोर भयो, हाय भोर भयो! सब रात ऐसे ही बीत गई, हाय फेर वही घर के ब्यौहार चलेंगे, फेर वही नहानो, वही खानो, वेई बातें, हाय!

केहि पाप सो पापी न प्रान चलै,
अटके कित कौन बिचार लयो।
नहिं जानि परै 'हरिचंद' कछू
बिधि ने हम सों हठ कौन ठयो॥
निसि आजहू की गई हाय बिहाय
पिया बिनु कैसे न जीव गयो।
हत-भागिनी आँखिन को नित के
दुख देखिबे कों फिर भोर भयो।

तो चलो घर चलें। हाय हाय! मॉ सो कौन बहाना करूँगी, क्योंकि वह जात ही पूछैगी कि सब रात अकेली बन मैं कहा करती रही। ( कुछ ठहर कर ) पर प्यारे! भला यह तो बताओ कि तुम आज की रात कहाँ रहे? क्यों देखो तुम हमसे झूठ बोले न! बड़े झूठे हौ, हा! अपनों से तो झूठ मत बोला करो, आओ आओ अब तो आओ। आओ मेरे झूठन के सिरताज।

छल के रूप कपट की मूरत मिथ्याबाद-जहाज॥