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भारतेंदु-नाटकावली

हे कोकिल-कुल श्याम रंग के तुम अनुरागी।
क्यौं नहिं बोलहु तहीं जाय जहँ हरि बड़भागी॥
हे पपिहा तुम पिउ पिउपिय पिय रटत सदाई।
अाजहु क्यौं नहिं रटि रटि के पिय लेहु बुलाई॥
अहे भानु तुम तो घर-घर में किरिन प्रकासो।
क्यौं नहिं पियहिं मिलाइ हमारो दुख-तम नासा॥

हाय!

कोउ नहिं उत्तर देत भए सबही निरमोही।
प्रानपियारे अब बोलौ कहाँ खोजौं तोही॥

( चंद्रमा बदली की ओट हो जाता है और बादल छा जाते हैं )

( स्मरण करके ) हाय! मैं ऐसी भूली हुई थी कि रात को दिन बतलाती थी, अरे मैं किसको ढूँढ़ती थी? हा! मेरी इस मूर्खता पर उन तीनों सखियो ने क्या कहा होगा। अरे यह तो चंद्रमा था जो बदली की ओट में छिप गया। हा! यह हत्यारिन बरषा रितु है, मैं तो भूल ही गई थी। इस अँधेरे में मार्ग तो दिखाता ही नहीं, चलूँगी कहाँ और घर कैसे पहुँचूँगी? प्यारे देखो, जो-जो तुम्हारे मिलने में सुहावने जान पड़ते थे वही अब भयावने हो गए। हा! जो बन आँखों से देखने में कैसा भला दिखाता था वही अब कैसा भयंकर दिखाई पड़ता है। देखो सब कुछ है एक तुम्हीं