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श्रीचंद्रावली

नहीं हौ। ( नेत्रों से आँसू गिरते हैं ) प्यारे! छोड़ के कहाँ चले गए? नाथ! ऑखें बहुत प्यासी हो रही हैं इनको रूप-सुधा कब पिलाओगे? प्यारे, बेनी की लट बँध गई है इन्हें कब सुलझाओगे? ( रोती है ) नाथ, इन आँसुत्रों को तुम्हारे बिना और कोई पोछनेवाला भी नहीं है। हा! यह गत तो अनाथ की भी नहीं होती। अरे बिधिना! मुझे कौन सा सुख दिया था जिसके बदले इतना दुःख देता है, सुख का तो मैं नाम सुनके चौंक उठती थी और धीरज धर के कहती थी कि कभी तो दिन फिरेंगे सेा अच्छे दिन फिरे। प्यारे, बस बहुत भई अब नहीं सही जाती। मिलना हो तो जीते जी मिल जाओ। हाय! जो भर ऑखों देख भी लिया होता तो जी का उमाह निकल गया होता। मिलना दूर रहे, मैं तो मुंह देखने को तरसती थी, कभी सपने में भी गले न लगाया, जब सपने में देखा तभी घबड़ा कर चौंक उठी। हाय! इन घरवालों और बाहरवालो के पीछे कभी उनसे रो-रोकर अपनी बिपत भी न सुनाई कि जी भर जाता। लो घरवालो और बाहरवालो! व्रज को सम्हालो मैं तो अब यहीं....( कंठ गद्गद होकर रोने लगती है ) हाय रे निठुर! मैं ऐसा निरमोही नहीं समझी थी, अरे इन बादलो की ओर देख के तो मिलता। इस ऋतु में तो परदेसी भी अपने घर आ जाते हैं पर तू न