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श्रीचंद्रावली

में भरी हैं उनके निकले बिना जी तिलमिलाता है। ऐसे बादलो को देखकर कौन लाज की चद्दर रख सकती है और कैसे पतिव्रत पाल सकती है!

माधुरी---विशेष कर वह जो आप कामिनी हो। ( हॅसती है )

कामिनी---चल तुझे हंसने ही की पड़ी है। देख, भूमि चारों ओर हरी-हरी हो रही है। नदी-नाले बावली-तालाब सब भर गए। पच्छी लोग पर समेटे पत्तों की आड़ में चुपचाप सकपके से होकर बैठे हैं। बीरबहूटी और जुगुनूँ पारी-पारी रात और दिन को इधर-उधर बहुत दिखाई पड़ते हैं। नदियों के करारे धमाधम टूटकर गिरते हैं। सर्प निकल-निकल अशरण से इधर-उधर भागे फिरते हैं। मार्ग बंद हो रहे हैं। परदेसी जो जिस नगर में हैं वहीं पड़े-पड़े पछता रहे हैं, आगे बढ़ नहीं सकते। वियोगियों को तो मानो छोटा प्रलय-काल ही आया है।

माधुरी---छोटा क्यों बड़ा प्रलयकाल आया है। पानी चारों ओर से उमड़ ही रहा है। लाज के बड़े-बड़े जहाज गारद हो चुके, भया फिर वियोगियों के हिसाब तो संसार डूबा ही है, तो प्रलय ही ठहरा।

कामिनी---पर तुझको तो बटेकृष्ण का अवलंब है न, फिर तुझे क्या, भांडीर घट के पास उस दिन खड़ी बात कर ही रही थी, गए हम---