पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/३५५

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श्रीचंद्रावली

बनी मनमोहिनी जोगिनियाँ।
गल सेली तन गेरुआ सारी केस खुले सिर बैदी सोहिनियाँ॥
मातै नैन लाल रँग डोरे मद बोरे मोहै सबन छलिनियाँ।
हाथ सरंगी लिए बजावत गाय जगावत बिरह-अगिनियाँ॥*
जोगिन प्रेम की आई।
बड़े-बड़े नैन छुए कानन लौं चितवन-मद अलसाई॥
पूरी प्रीति रीति रस-सानी प्रेमी-जन मन भाई।
नेह-नगर मैं अलख जगावत गावत बिरह बधाई॥
जोगिन-अॉखन प्रेम-खुमारी।
चंचल लोयन-कोयन खुभि रही काजर रेख ढरारी॥
डोरे लाल लाल रस बोरे फैली मुख उँजियारी।
हाथ सरंगी लिए बजावत प्रेमिन-प्रानपियारी॥
जोगिन मुख पर लट लटकाई।
कारी घूँघरवारी प्यारी देखत सब मन भाई॥
छूट केस गेरुआ बागे सोभा दुगुन बढ़ाई।
साँचे ढरी प्रेम की मूरति अँखियाँ निरखि सिराई॥

( नेपथ्य में से पैंजनी की झनकार सुनकर )

अरे कोई आता है। तो मैं छिप रहूँ। चुपचाप सुनूँ। देखूँ यह सब क्या बातें करती हैं।

( जोगिन जाती है, ललिता आती है )


  • चैती गौरी वा पीलू खेमटा।