पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/३६

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कष्ट कर प्रतीत नहीं हुआ। कभी वे भक्ति तथा रीति काल के सुकवियों से हाड़ लेते थे, तो कभी वे नए काल के मिल्टन, शेक्सपियर आदि से प्रभावान्वित बंग-कवियों की श्रेणी में जा बैठते थे। कभी राजभक्ति-पूर्ण पुष्पांजलि अर्पण करते थे तो कभी देश के लिए आठ-आठ आँसू रोते थे। कभी टीकाधारी भंड साधुओ की हँसी उड़ाते थे, तो कभी सच्चे भक्तों की माला पिरोते थे। यही कारण है कि इन गुणो से आकृष्ट होकर प्राचीन तथा नवीन दोनो विचार वालो का एक अच्छा मंडल इनके चारों ओर घिर गया था, जिसने हिन्दी के उन्नयन में इनका खूब हाथ बँटाया।

भारतेन्दु जी की गद्य-शैली के विषय में इतना ही कहना अलम् है कि उनकी भाषा सुस्पष्ट होती थी, जटिल नहीं। वे वाक् चातुरी में भाव को फँसाया नहीं चाहते थे। भावों के अनुसार भाषा में भेद् अवश्य होता था। आवेश में स्वभावतः छोटे-छोटे वाक्यों में जो बाते लिख गई हैं, वही जब कुछ समझ बूझकर किसी स्थायी भाव के स्पष्ट करने को कही गई हैं, तब वहाँ अधिक संयत भाषा, कुछ बड़े वाक्यों में, लिखी गई हैं। जहाँ विनोद तथा मनोरंजन की बातें हैं, वहाँ भाषा में भी चपलता आ गई है। कहीं कहीं अधिक गम्भीर विषय संस्कृत-पदावली-युक्त भी हैं। तात्पर्य यह कि भारतेन्दु जी का भाषा पर पूरा अधिकार था और वह उनकी अनुवर्तिनी थी।

विक्रमी उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध के आरम्भ में खड़ी बोली हिन्दी-गद्य की जो प्रतिष्ठा हुई थी, उसकी परम्परा पूर्ण रूपेण नहीं चली और वह प्रायः पचीस वर्ष तक बीसवीं शताब्दी