पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/४२७

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मुद्राराक्षस

दोऊ सचिव-विरोध सो, जिमि बन जुग गजराय।
हथिनी सी लक्ष्मी बिचल, इत उत झोंका खाय॥

तो चलूँ, अब मंत्री राक्षस से मिलूँ।

( जवनिका उठती है और आसन पर बैठा राक्षस और पास प्रियंबदक नामक सेवक दिखाई देते हैं )

राक्षस---( ऊपर देखकर आँखों में आँसू भरकर ) हा! बड़े कष्ट की बात है---

गुन-नीति-बल सो जीति अरि जिमि अापु जादवगन हयो।
तिमि नंद का यह बिपुल कुल बिधि बाम सो सब नसि गयो॥
एहि सोच में मोहि दिवस अरु निसि नित्य जागत बीतहीं।
यह लाखौ चित्र विचित्र मेरे भाग के बिनु भीतहीं॥

अथवा

बिनु भक्ति भूले, बिनहिं स्वारथ हेतु हम यह पन लियो।
बिनु प्रान के भय, बिनु प्रतिष्ठा-लाभ सब अब लौं कियो॥
सब छोड़ि कै परदासता एहि हेत नित प्रति हम करैं।
जो स्वर्ग में हूँ स्वामि मम निज शत्रु हत लखि सुख भरैं॥

( आकाश की ओर देखकर दुःख से ) हा! भगवती लक्ष्मी! तू बड़ी अगुणज्ञा है क्योंकि---

निज तुच्छ सुख के हेतु तजि गुनरासि नंद नृपाल कों।
अब शूद्र में अनुरक्त है लपटी सुधा मनु ब्याल को॥