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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/४२८

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भारतेंदु-नाटकावली

ज्यो मत्त गज के मरत मद की धार ता साथहिं नसै।
त्यों नंद के साथहि नसी किन? निलज, अजहूँ जग बसे॥

अरे पापिन!

का जग में कुलवंत नृप जीवत रह्यौ न कोय।
जो तू लपटी शूद्र सो नीच-गामिनी होय?॥

अथवा

बारबधू जन को अहै सहजहिं चपल सुभाव।
तजि कुलीन गुनियन करहिं अोछे जन सो चाव॥

तो हम भी अब तेरा आधार ही नाश किए देते हैं। ( कुछ सोचकर ) हम मित्रवर चंदनदास के घर अपना कुटुंब छोड़कर बाहर चले पाए सो अच्छा ही किया। क्योंकि एक तो अभी कुसुमपुर को चाणक्य घेरा नहीं चाहता, दूसरे यहाँ के निवासी महाराज नंद में अनुरक्त हैं, इससे हमारे सब उद्योगों में सहायक होते हैं। वहाँ भी विषादिक से चंद्रगुप्त के नाश करने को और सब प्रकार से शत्रु का दॉव-घात व्यर्थ करने को बहुत सा धन देकर शकटदास का छोड़ ही दिया है। प्रतिक्षण शत्रुओं का भेद लेने को और उनका उद्योग नाश करने को भी जीव-सिद्धि इत्यादि सुहृद नियुक्त ही हैं। सो अब तो---

विष-वृक्ष-अहिसुत-सिंहपोत-समान जा दुखरास कों।
नृपनंद निज सुत जानि पाल्यौ सकुल निज असु-नास कों॥