पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/४२९

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मुद्राराक्षस

ता चंद्रगुप्तहि बुद्धि-सर मम तुरत मारि गिराइहै।
जो दुष्ट दैव न कवच बनिकै असह आड़ै आइहै॥

( कंचुकी आता है )

कंचुकी---( आप ही आप )

नृपनंद काम-समान चानक-नीति-जर जरजर भयो।
पुनि धर्म-सम नृप चंद्र तिन तन पुरहु क्रम सो बढ़ि लयो॥
अर्धकास लहि तेहि लोभ राक्षस जदपि जीतन जाइहै।
पै सिथिल बल भे नाहिं कोऊ विधिहु सो जय पाइहै॥

( देखकर ) मंत्री राक्षस है। ( आगे बढ़कर ) मंत्री! आपका कल्याण हो।

राक्षस---जाजलक! प्रणाम करता हूँ। अरे प्रियंबदक! आसन ला।

प्रियंबदक---( आसन लाकर ) यह आसन है, आप बैठें।

कंचुकी---( बैठकर ) मंत्री, कुमार मलयकेतु ने आपको यह कहाँ है कि "आपने बहुत दिनों से अपने शरीर का सब श्रृङ्गार छोड़ दिया है इससे मुझे बड़ा दुःख होता है। यद्यपि आपको अपने स्वामी के गुण नहीं भूलते और उनके वियोग के दुःख में यह सब कुछ नहीं अच्छा लगता तथापि मेरे कहने से आप इनको पहिरें।" ( आभरण दिखाता है ) मंत्री! आभरण कुमार ने अपने अंग से उतारकर भेजे हैं, आप इन्हें धारण करें।

भा० ना०--२१