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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/४३०

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भारतेंदु-नाटकावली

राक्षस---जाजलक! कुमार से कह दो कि तुम्हारे गुणों के आगे मैं स्वामी के गुण भूल गया। पर---

इन दुष्ट बैरिन सो दुखी निज अंग नाहिं सँवारिहौं।
भूषन बसन सिंगार तब लौं हौं न तन कछु धारिहौं॥
जब लौं न सब रिपु नासि, पाटलिपुत्र फेर बसाइहौं।
हे कुँवर! तुमको राज दै, सिर अचल छत्र फिराइहौं॥

कंचुकी---अमात्य! आप जो न करो सो थोड़ा है, यह बात कौन कठिन है? पर कुमार की यह पहिली बिनती तो मानने ही के योग्य है।

राक्षस---मुझे तो जैसी कुमार की आज्ञा माननीय है वैसी ही तुम्हारी भी, इससे मुझे कुमार की आज्ञा मानने में कोई विचार नहीं है।

कंचुकी---( आभूषण पहिराता है ) कल्याण हो महाराज! मेरा काम पूरा हुआ।

राक्षस---मैं प्रणाम करता हूँ।

कंचुकी---मुझको जो आज्ञा हुई थी सो मैंने पूरी की। [ जाता है

राक्षस---प्रियंबदक! देख तो मेरे मिलने को द्वार पर कौन खड़ा है।

प्रियं०---जो आज्ञा। ( आगे बढकर सँपेरे के पास आकर ) आप कौन हैं?

सँपेरा---मैं जीर्णविष नामक सँपेरा हूँ और राक्षस मंत्री के साम्हने मैं साँप खेलना चाहता हूँ। मेरी यही जीविका है।