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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/४३१

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मुद्राराक्षस

प्रियं०---तो ठहरो, हम अमात्य से निवेदन कर लें। ( राक्षस के पास जाकर ) महाराज! एक सँपेरा है, वह आपको अपना करतब दिखलाया चाहता है।

राक्षस---( बाईं आँख का फड़कना दिखाकर, आप ही आप ) हैं, आज पहिले ही सॉप दिखाई पड़े। ( प्रकाश ) प्रियंबदक! मेरा सॉप देखने को जी नहीं चाहता सो इसे कुछ देकर बिदा कर।

प्रियं०---जो आज्ञा। ( सॅपेरे के पास जाकर ) लो, "मंत्री तुम्हारा कौतुक बिना देखे ही तुम्हें यह देते हैं, जाओ।

सँपेरा---मेरी ओर से यह बिनती करो कि मैं केवल सँपेरा ही नहीं हूँ किंतु भाषा का कवि भी हूँ, इससे जो मंत्रीजी मेरी कविता मेरे मुख से न सुना चाहें तो यह पत्र ही दे दो पढ लें। ( एक पत्र देता है )

प्रियं०---( पत्र लेकर राक्षस के पास आकर ) महाराज! वह सँपेरा कहता है कि मैं केवल सँपेरा ही नहीं हूँ, भाषा का कवि भी हूँ। इससे जो मंत्रीजी मेरी कविता मेरे मुख से सुनना न चाहें तो यह पत्र ही दे दो, पढ़ लें। ( पत्र देता है )

राक्षस---( पत्र पढ़ता है )

सकल कुसुम-रस पान करि मधुप रसिक-सिरताज।
जो मधु त्यागत ताहि लै होत सबै जगकाज॥