( आप ही आप ) अरे!!---"मैं कुसुमपुर का वृत्तांत जाननेवाला आपका दूत हूँ" इस दोहे से यह ध्वनि निकलती है। अह! मैं तो कामो से ऐसा घबड़ा रहा हूँ कि अपने भेजे भेदिया लोगो को भी भूल गया। अब स्मरण आया। यह तो सँपेरा बना हुआ विराधगुप्त कुसुमपुर से आया है। ( प्रकाश ) प्रियंबदक! इसको बुलाओ यह सुकवि है, मैं भी इसकी कविता सुना चाहता हूँ।
प्रियं०---जो आज्ञा। ( सँपेरे के पास जाकर ) चलिए, मंत्रीजी आपको बुलाते हैं।
सँपेरा---( मंत्री के साम्हने जाकर और देखकर आप ही आप )
अरे यही मंत्री राक्षस है! अहा!---
लै बाम बाहु-लताहि राखत कंठ सौं खसि खसि परै।
तिमि घरे दच्छिन बाहु कोहू गोद में बिच लै गिरै॥
जा बुद्धि के डर होइ संकित नृप हृदय कुच नहिं धरै।
अजहूँ न लक्ष्मी चंद्रगुप्तहि गाढ़ आलिंगन करै॥
( प्रकाश ) मंत्री की जय हो।
राक्षस---( देखकर ) अरे विराध---( संकोच से बात उड़ाकर ) प्रियंबदक! मैं जब तक सर्पों से अपना जी बहलाता हूँ तब तक सबको लेकर तू बाहर ठहर।