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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/४३३

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मुद्राराक्षस

प्रियं०-जो आज्ञा।

( बाहर जाता है )

राक्षस---मित्र विराधगुप्त! इस आसन पर बैठो।

विराधगुप्त---जो आज्ञा। ( बैठता है )

राक्षस---( खेद-सहित निहारकर ) हा! महाराज नंद के आश्रित लोगो की यह अवस्था! ( रोता है )

विराध०---आप कुछ सोच न करें, भगवान की कृपा से शीघ्र ही वही अवस्था होगी।

राक्षस---मित्र विराधगुप्त! कहो, कुसुमपुर का वृत्तांत कहो।

विराध०---महाराज! कुसुमपुर का वृत्तांत बहुत लंबा-चौड़ा है, इससे जहाँ से आज्ञा हो वहाँ से कहूँ।

राक्षस---मित्र! चंद्रगुप्त के नगर-प्रवेश के पीछे मेरे भेजे हुए विष देनेवाले लोगो ने क्या-क्या किया यह सुना चाहता हूँ।

विराध०----सुनिए-शक, यवन, किरात, कांबोज, पारस, वाह्रीकादिक देश के चाणक्य के मित्र राजों की सहायता से, चंद्रगुप्त और पर्वतेश्वर के बलरूपी समुद्र से कुसुमपुर चारो ओर से घिर गया है।

राक्षस---( कृपाण खींचकर क्रोध से ) हैं! मेरे जीते कौन कुसुमपुर घेर सकता है? प्रवीरक! प्रवीरक!

चढ़ौ लै सरै धाइ घेरौ अटा कों।
धरौ द्वार पै कुंजरैं ज्यों घटा कों॥