राक्षस---( घबड़ाकर ) क्यों-क्यो! क्या चाणक्य ने जान लिया?
विराध०---नहीं तो क्या?
राक्षस---कैसे?
विराध०---महाराज! चंद्रगुप्त के सोने जाने के पहिले ही वह दुष्ट चाणक्य उस घर में गया और उसको चारो ओर से देखा तो भीतर की एक दरार से चिउँटियाँ चावल के कने लाती हैं। यह देखकर उस दुष्ट ने निश्चय कर लिया कि इस घर के भीतर मनुष्य छिपे हैं। बस, यह निश्चय कर उसने उस घर में आग लगवा दिया और धूआँ से घबड़ाकर निकल तो सके ही नहीं, इस से वे वीभत्सका- दिक वहीं भीतर ही जलकर राख हो गए।
राक्षस---( सोच से ) मित्र! देख, चंद्रगुप्त का भाग्य कि सब के सब मर गए। ( चिंता सहित ) अहा! सखा! देख दुष्ट चंद्रगुप्त का भाग्य!
कन्या जो विष की गई ताहि हतन के काज।
तासों मारयौ पर्वतक जाको आधो राज॥
सबै नसे कलबल सहित जे पठए बध हेत।
उलटी मेरी नीति सब मौर्यहि को फल देत॥
विराध०---महाराज! तब भी उद्योग नहीं छोड़ना चाहिए---
प्रारंभ ही नहिं विघ्न के भय अधम जन उद्यम सजै।
पुनि करहिं तौ कोउ विघ्न सो डरि मध्य ही मध्यम तजैं॥